पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१

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मनुस्मृति भाषानुवाद कहते है । वे ये हैं। स्थावर अर्थात् वृक्षादि इनमे दो प्रकार हैं एक वीज से उत्पन्न होने वाले दूसरे शाखा से (वान यव इत्यादि) जिन का फन पाक मे श्रान्न हो जाता है और पुष्प फल जिन मे अधिक होते हैं उन को ओपधि (उद्भिज्ज ) कहते हैं ।। ४६ ॥ अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः । पुष्पिणः फलिनश्चैत्र वृक्षास्तूभयतः स्मृताः ||४७|| गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः । योजकाण्डरहारयेव प्रनाना बल्लच एव च ॥४८॥ जिन मे पुष्प नहीं किन्तु फल ही होता है उन को वनस्पति कहते हैं और जो पुष्प फन से युक्त हैं। उनको वृक्ष कहते हैं ॥४७॥ जिस में जडसे ही लता का मूज हे। और शाखा इत्यादि न हो उस को गुज्ज कइने हैं (जैसे मल्लिका) जुल्म (जैस इन प्रभृति) तृणजाति, नाना प्रकार के वीज साग्य से उत्सान होने वाले और प्रवान (जिन मे सूत सामिाजे जैसे कद्दू खीरा इत्यादि ) और वल्ली ( जैसे गुण्यादि )उद्विज्ज हैं ॥४८॥ तमसा बहुरूपेण वेष्टिता कहेना । अन्सः संज्ञा भवन्त्येते सुखदुःख समन्विताः ॥ ४६॥ एतदन्तास्तु गया ब्राम: समुहाहनः । घोरेजस्मिन्मृत सारे नित्यं सततयायिनि ॥ ५० ॥ ये (वृक्ष) अधिक तमोगुण २ (दुख देने वाले अधर्म) कर्मों से व्याप्त हैं । इनके भीतर छुपा ज्ञान रहता है । सुख दुख से युक्त रहते हैं " ॥४९॥ इस नाशवान् प्राणियों को भयङ्कर और

  • जिस प्रकार जलादि के न मिलने से मनुष्यादि भर जाते

हैं वैसे वृक्षादि भी।