पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६००

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एकादशाऽध्याय तब ४० वें में कही हानियें होगी ही। परन्तु यह थोड़ी दक्षिण के यज्ञ की बुराई [निन्दार्थवाद ] कुछ अत्युक्ति सी प्रतीत होती है और ४० वैसे आगे ६ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक भी पाया जाता है:- [अनहीनो दहेद्राष्ट्र मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः । दीक्षितं दक्षिणाहीनानास्ति यज्ञसमोरिपुः ॥] अनहीन यज्ञ राज्य को फूकता है । मन्त्रहीन ऋत्विजों का नाश करता है दक्षिणाहीन दीक्षितको नष्ट करता है । यन्त्रके समान कोई शत्रु नहीं । इस से यह भी सन्देह होता है कि ४० वा श्लोक भी कदाचित हीन यक्ष की निन्दापरक पीछे से ही बढ़ाया गया हो जैसे कि यह केवल छ: पुस्तकों में ही है ) ॥४०॥ अग्निहोत्र्यपविध्याग्नीन् ब्राह्मणः कामकारतः। चान्द्रायणं चरेन्मास वीरहत्पासमं हि तत् ॥४१॥ ये शदादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते। ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां ब्रह्मवादिपु गर्हिताः ॥४२॥ अग्निहोत्री ग्रामण इच्छा से अग्नि मे सायं प्रातः होम न करे तो एकमासापर्यन्त चान्द्रायण व्रत करे। क्योकि वह पुत्रहत्यासम पाप है ॥४१॥ जो शुष्ट से धन लेकर अग्निहोत्र किया करते हैं, व वेदपाठियों में निन्दित हैं क्यों कि( एक प्रकार से ) वे शूद्रा के ऋविन हैं ॥४॥ तेषां सतत्तमन्नानां धूपलाग्न्युपसेविनाम् । पदा मस्तकमाक्रम्य दाता दुर्गाणि संतरेत् ॥४३॥ अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् ।