पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५९८ मनुस्मृति मापानुवाद प्रसक्तश्चेन्द्रिगर्थे प्रायश्चिचीयते नरः ॥४॥ उन शद्रो के धनसे सदा यज्ञ करने वाले मूर्ख ब्राह्मणों के शिर पर पैर रख कर वह दाता (शूद्र) दुःखो से तरता है (अर्थात् यश कराने वालों को सदा शूद्र से देवना पड़ता है) ॥४३॥ विहित कर्म को न करता और निन्दित को करता हुवा तथा इन्द्रयों के विषय मे आसक्त मनुष्य प्रायश्चित के योग्य हो जाता है ||४|| अकामत कने पापे प्रायश्चित्र विदुर्बु धाः। कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात् ॥४५॥ अकामतः कृतं पापं वेदाम्यासे शुद्धपति । कामवस्तुः कृतं माहात्प्रायश्चितैः पृथग्विधैः ॥४६॥ विद्वान् लोग बिना इच्छा से किये पाप पर प्रायश्चित्त कहते है। दूसरे प्राचार्य वेद के देखने से कहते हैं कि इच्छा से किये में भी (प्रायश्चित्त होना चाहिये) ॥४५॥ विना इच्छा से किया पाप बंदाभ्यास से शुद्ध होता है और मोह वश इच्छा से किया हुवा नाना प्रकार के प्रायश्चितों से शुद्ध होता है ॥४६|| प्रायश्चित्त का विचार प्रायः पापं विजानीयाचित्र नै तद्विशोधनम् और- प्रायोनम तपः प्रोक्तं चित्र निश्चय उच्यते । तपा निश्चयसंयुक्तं प्रायश्चित्रं तदुच्यते ॥ प्रायशश्च समं चित्रं चारयित्वा प्रदीयते । पर्षदा कार्यते यत् प्रायश्चित्रं तदुच्यते ॥