पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०२

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दशमाऽध्याय तथा- योगदृष्टान्मवेदनीयोनियनिय अधी गनि । कृतस्थापस्वस नारा. प्रधानमयागमा वा नितविक प्रधानकर्मणाभिभूतस्य वा चिरमवत्यानमिति । यथा शुक्रनकों दयादिहेब नाश कृष्ण ! यमुक्त हेतु कर्मणी वेदितव्ये । (इम्याति)। यह व्यासमाप्य योगदर्शन के- सति मूले तद्विपाका जात्यायुभेगाः ॥ २॥ १३ ॥ इस सूत्र पर है। जिसका तात्पर्य यह है कि जो पूर्व जन्म का जानने योग्य नियतविपाक कर्म है, उसकी ३ गति है । १-अप- स्त्र कृत का नारा २-या प्रवान कर्म के भीतर भुगता जाना, ३ वा निन्य विपाक प्रथान कर्म से वे हुवे का बहुत काल तक स्थित रहना । जैसे पुण्य कर्म के उदय से पाप का वा श्वेतक्रम-चन्त्र घोने आदि से कलीम का यहीं नाश हो जाता है जिस में यह कहा गया है कि दो कर्म पाप पुण्य भेड़ से जानने चाहिये इत्यादि ।। अब जानना यह है कि पाप क्या बन्नु है और उसकी निवृत्ति किस प्रकार ो स्कनी है। जिस प्रकार एक लकड़ी को मोड़ने रहने से वह तिरछी हो जाती और वह मीधे कमी के योग्य नहीं रहती इसी प्रकार आत्मा भी परामकारादि पाप मे अवन्या - न्तर को प्राप्त होकर शुद्ध अवस्था से भोग्य शुम फलों के योग्य नहीं रहता । वा जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्र पर जो ख काले या अन्चे लगाये जावें उन २ से वन्त्र को वह २ रजत हो जाती हैं। और उस रग विशेष से बह बन्न जानुमार पुष्ट या क्षीण भी होता है। इसी प्रकार श्रात्मा भी विचित्र क्रमों में करनेसे विचित्र अवस्थाओं को प्राप्त हो जाता है और अवस्थानुसार ही फलमाग को योग्यता वा अयोग्यता होती है। इसी प्रकार दुर्म से छात्मा में एक प्रकार की वामना विषमताचा मलीनता उत्पन्न हो जाती