पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०३

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६०० मनुस्मृति भाषानुवाद है । उसको दूर करने का उपाय भोग है। वह भोग हा प्रकार का है। एक ईश्वर वा राजा की व्यवस्था से परवश होकर भोगना दूसरा अपने आप ही समझ कर कि मैंने यह बुरा किया है जिससे मेरे आत्मा में पाप वास करता है जो मुझे अनिष्ट है । (स्मरण रहे कि यहां "आत्मा" शब्द का प्रयोग हमने अन्तःकरण सहित आत्मा के लिये किया है। केवल आमा मे पाप पुण्य नहीं लग सकते) मनुष्य विद्वान् लोगों से कहे कि मैंने यह पाप किया है इस से मेरा आत्मा घुटता है इसकी निवृत्ति का उपाय बताइये । तय वे लोग देश कान अपस्था के विचार से शास्त्रानुसार वा शास्त्र में स्पष्ट न कहा हो तो शास्त्र की अविरोषनी अपनी कल्पना से प्रायश्चित बतायें। वहपापी श्रद्धा, नम्रता और पश्चातापसे युक्त उस २ से अनुष्ठान करे। जो कष्ट हो उनका सहे आगे का अपना सुधार करे । अथार्थ मे राजदण्डादि से भी तो इस से अधिक फल नहीं होता। क्योंकि एक पुरुष ने दूसरे को थप्पड़ मारा और मार ने वाले को राजदण्ड होगया तो उस राजदण्ड से जिसके थप्पड़ लगा था उसकी चोट दूर नहीं हुई किन्तु एक तो उस थप्पड़ से पिटने वाले का जो दुःख था सो इस अपराधी को दण्ड मिलने में शान्ति वा सन्तोष सा होकर चित्तविषमता का निवारक हुवा दूसरे अपराधी को यह बलपूर्वक ज्ञात कराया कि ऐसा काम करना योग्य न था। जिससे इसके चित्त की भी आगेके लिये और देखने वालो को पाप करने से पूर्व ही ग्लानि होकर उत्तरोत्तर संसार में शान्ति का प्रसार हुवा नौ प्रायश्चित का फल सोचें तो एक प्रकार से राजदण्ड से भी उत्तम हो सकता है। क्योकि बलात्कार से जर कमी एक पुरुष हानि उठाकर हानिकारक को राजद्वार से दण्ड दिलाता है तो कमी २ ऐसा देखा गया है कि कारागार से छटवे ही आकर पूर्व द्वेष से उचो अरपी ने उौ पुरुर को द्वष के