पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०४

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एकादमध्याय रान प्रकट करके कि तूने ही मुझे जेल में मेजवाया था, उस से भी अधिक हानिये फिरकी हैं । परन्तु जवकि मनुष्य स्वयं अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करता है तब ऐसा नहीं हो सकता। प्रायः ऐसे भी प्रायश्चित हैं जिनमें पड़ा अपराध है और भोग थोड़ा जान पड़ता है परन्तु देशकाल अवस्था के विचार से ऐसा होना ही चाहिये । एक पुरुष को बेत मारनेसे जितनी शिक्षा मिल सकती है दूसरे को "तुमने बुरा किया" इतना कहने का ही उस बेत खानेवाले से भी अधिक शिक्षादायक प्रभाव हो जाताहै। ऐसे ही देश और काल से भी भेद समभित्ये। सभ्य देशों के समझदार मनुष्यों को तो पक्षमा मांगने से ही जितनी शिक्षा होती है उतनी असम्य प्रशिक्षितों की कमी र बध से भी नहीं होती। इत्यादि बहुत दूर तक विचार फैलाने से प्रायश्चित्त की सार्थकता समझाने मा सकती है। यहां थोड़ा ही लिखकर समाप्त करते हैं) ॥४६॥ प्रायश्विनीयता प्राप्य दैवात्पूर्वकतेन वा । न संसर्ग बजेसभिः प्रापश्चिचे ने द्विजः ॥१७॥ इह दुश्चरितः केचित्रचित्पूर्वकतैस्तथा । प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा रूपविपर्ययम् (18!! दैववश या पूर्व जन्म के पाप से दिन प्रायश्चित के योग्य शेफर प्रारश्चित बिना, किये सजनों के साथ संसर्ग न करे (१७ में से आगे एक पुस्तक में "प्रायो नाम तपः प्रोक्तम् ' इत्यादि श्लोक अधिक है) ॥४॥ कोई इस जन्म के और पूर्व जन्म के दुराचरण से दुष्प्रात्मा मनुष्य, रूप की विपरीतता को प्राप्त होते है In जैसा कि- सुवाचौर कौनख्यं सुरापः श्यावदन्तवाम् । ।