पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०५

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मनुस्मृति भाषानुवाद 1 ब्राहा चयरागिन दौश्चय गुरुतल्पगः ॥४६॥ पिशुनः पौतिनासिक्यं सूचका पूतिवक्त्रताम् । धान्यचौरो नहीनत्वमातिरेक्य तु मिश्रकः ॥५०॥ सोने का चुराने वाला कुनखी होता है और मदिरा पीने वाला काले दांत को और ब्रह्महत्या करने वाला क्षयरोगिता को तथा गुरु की स्त्री से गमन करने वाला दुष्ट चर्म को पाता है ॥४९॥ चुगली करने वाला दुर्गन्ध नासिका को और झूठी निन्दा करने वाला दुर्गन्ध मुख को और धन चुराने पाला अगहीनता को और धान्य मे अन्य वस्तु मिलाने वाला अधिकाङ्गता को प्राप्त होता है)।१०। अमहर्वामयाविल्लं मौक्य' वागपहारकः । वस्त्रापहारका श्यं पंगुतामश्वहारकः ॥५१॥ अन्न चुराने वाला मन्दाग्निता को वाणी का चुराने वाला गूंगेपन को कपड़े का चुराने वाला श्वेत कोढ़ और घोड़ेका चुराने वाला पंगुपन को प्राप्त होता है) (५१ वें से आगे अर्द्ध श्लोक २० पुस्तकों में अधिक है और रामचन्द्र ने उसपर टीका भी की है:- [दीपहर्ता मवेदन्धः काणोनिर्वाषको भवेत् ] दीपक चुराने वाला अन्धा और (चोरी से) दीपक बुझाने वाला काया होता है। अन्य ९ पुस्तकों मे ईसी से आगे उत्तरार्ध- रूप और भी अर्घ श्लोक उपस्थित है कि:- [ हिंसया व्याविभूयस्त्वमरोगित्वमसिया ] (हिंसा से बहुत रोगीपना और अहिंसा से नीरोगता होतीहै ।५९॥ एवं कर्मविशेषेण जायन्ते सद्विगर्हताः ।