पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२

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प्रथमाऽध्याय . सदा चल संसार में ब्रह्मा से स्थावरपर्यन्त ये गतिये कहीं ॥ ५० ॥ एवं सर्ने स सृष्ट्वेद मां चाचिन्त्याराक्रमः | आत्मन्यन्तर्दधे भृयः कालं कालेन पीडयन् ॥ ५१ ॥ यदा स देवो जागर्ति तदेदं चेष्टने जगत । यदा स्वपिति शान्तात्मा तदासर्व निमलति ॥ १२ ॥ उस अचिन्त्वपराक्रम ईश्वर ने सम्पूर्ण (स्थावरजङ्गमरूप) सृष्टि और मुक्ति मनु को ऐसे उत्पन्न करके सृष्टिकाल को प्रलयकाल से नाश करते हुवे अपने में पा लिया है (अर्थान् प्राणियों के कर्मयश से पुनः पुन' सृष्टि प्रलय करता है) ॥५१॥ जव प्रजापति जागता-(सृष्टि करने की इच्छा करता) है उस समय यह सम्पूर्ण जगत् चेष्टायुक्त हो जाता है और जब निवृत्ति की इच्छा होती है तव सम्पूर्ण लय को प्राप्त होता है। (यही उस का साना जागना है ) ॥५२॥ तस्मिन् स्वपिति तु स्वस्थ कर्मात्मानः शरीरिणः । स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिमच्छति ॥ ५३॥ युगपत्त प्रलीयन्ते यदा नम्मिन महात्मनि । तदायं मनभृतात्मा सुखं स्तपिति निवृतः ॥ ५४ ॥ जब वह व्यापारो से रहित हो शयन करता है उस समय कमात्मा (जो कि शरीर के साथ तक कर्नवन्धनसे नही छटते है) प्राणी अपने २ कर्म से निवृत्त हो जाते हैं और मनम्तत्त्वमी क्षीण हो जाता है ॥ ५३॥ एक ही समय जब वे संपूर्ण ईश्वर में प्रलय का मान होते हैं उस समय (एर दुसादि से रहित जीवों को सुपुत्र का सुख प्राप्त हो इसतिय) यह परमात्मा निवृत्त और सोता कहा जाता है।