पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१०

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कारशाध्याय ६०७ एतान्येनांसि सर्वाणि यथोक्तानि पृथक थक् । येयत्र तैरपोद्यन्ते तानि सम्पनियोधन ॥७१॥ प्रबहा द्वादशसमा कुटी कला वने वसेत् । मैवाश्यात्मविशुद्धयर्थ कन्या शवशिरोधजम् १७२१ ये सब ब्रहत्यादि पाप जैसे अलग अलग कहे गये, वे जिन जिन प्रतो से नाश को प्राप्त किये जाने हैं, उन को अच्छे प्रकार सुनों |७१॥ प्राह्मण का हत्यारा धन में कुटी बना कर मुरदे के सिरका चिह्न करके, भीख मांग कर खाता हुवा अपनी शुद्धि के लिये बारह वर्ष रहे ॥२॥ लला शस्त्रभृतां वा स्याद्विदुपामिच्छयात्मनः । प्रास्पेदात्मानमग्नौ वा समिद्धे विवाशिरा ७३॥ यजेत वारयमेधेन स्वर्जिता गोसवेन वा । अभिजिद्विश्वजियाशा त्रिवृताग्निष्टुतापिया ७४ अथवा शस्त्रधारण करने वाले विद्वानो का अपनी इच्छा से निशाना बने । अथवा नीचे शिर करके जनती हुई अग्नि में अपने को तीन वार डाल ||७|| अथवा अश्वमेव यन करे वा स्वर्जित गोसवन, अभिजित् ,विश्वजित्. त्रिवृत् या अग्निष्ठत् (ये यश विशेष) करे ॥४॥ जपन्वाऽन्यतम वेदं योजनां शतं ब्रजेत् । ब्रह्महत्यापनादाय मित नियतेन्द्रियः ॥७५॥ सर्वस: वेदवि.पे ब्राह्मणायोपपादयेत् । धनं वा जीवनाथाडलं गृहं या सपरिच्छदम् ।।७६॥