पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१३

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मनुस्मृति भाषानुवाद सा तेषां पावनाय स्य पवित्रा विदुषांहि वाक् ॥८॥ अतोऽन्यतममास्थाय विधि विप्रः समाहितः। ब्रह्महत्याकृतं पापं व्यपाहत्यामश्तया ॥८६॥ उन (अमहत्यादि करने वालो) को वेद के जानने वाले सीन भी विद्वान् पापों के जो प्रायश्चित बनावें, बही उन पापियों की शुद्धि के लिये है। क्यों कि विद्वानो की वाणी पवित्र है ||८५॥ स्वस्थ चित्त मामण इनमे से कोई एक विधि ही करके आत्मवान- मनस्वी होने से ब्रह्माहत्या से किये पाप को दूर कर देता है ।।८६॥ इत्या गर्भमाषज्ञातमेतदेव प्रतं चोत् । राजन्यवेश्या चेजानात्रात्रेयीमेव च स्त्रियम् ।। बिना जाने गर्म को मार कर पा यज्ञ करते हुवे क्षत्रिय, वैश्य और गर्भवती स्त्री का वध करके मी यही ब्रह्महत्या का प्रायश्चिच करे। (८0 से आगे एक पुस्तक में आत्रेयी का लक्षण करने के लिये एक यह श्लोक अधिक पाया जाता है: [जन्मप्रभृतिसंस्कारैः संस्कृता मन्त्रयाचया । गर्भिणी अथवा स्यातामात्रेयीं च विदुर्घषाः ॥] अर्थात् जो जन्म से लेकर संस्कारों से मन्त्र पूर्वक संस्कृता अथवा गर्भणी हो, उसे विद्वान् लोग "आत्रेयी जानवे Hall उक्या चैवानृतं साक्ष्ये प्रतिरुद्धय गुरुं तथा । अपहत्य च निक्षेपं कृत्वा च स्त्रीसुहृद्वधम् ।।