पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१४

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पकासाऽध्याय गवाही में झूठ बोल कर गुरु का विरोध करके घरोहर हजम करके और स्त्री तथा मित्र का वध करके ( भी यही प्रायश्चित्त

  • ) IICCHI

इयं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याऽकामता द्विजम् । कामतो ब्राह्मणवधे निष्कतिर्न विधीयते ||६|| सुरां पीचा द्विजा मोहादग्निवणों सुरां पिबेत् । तया स काये निर्दग्धे मुच्यतेकिन्विशात्ततः ।।६०|| यह शुद्धि विना इच्छा ब्राह्मण के वध में कहीं है और इन्छा रंप करनेमें प्रायश्चित्त ही नहीं कहाitcा द्विज अनानसे (दूसरे महापातक) मदिरा पीकर भाग के समान गरम मदिरा पोत्रे । उस मध से शरीर जलने पर वह (द्विज) उस पाप से छुटखा है ।।९०! गौमूत्रमन्निवर्य पा पिदुकमेव वा । फ्यो वृतं वाऽमरणाद् गोशद्रसमेव वा ॥१॥ कणाचा भक्षोदन्दं पिएयाकं वा सकृग्निशि । सुगपानापनुत्यर्थ बाजवासा नटी धजो ॥१२॥ अथवा गानून का जल अग्नि वर्ण गरम करके पीचे अथवा भरण पर्यन्त दुग्ष घृत ही पीकर रहे अथवा गोबर का रस पौवं (मद्यपान न पाप छट जावेगा) ॥९॥ अथवा चावल की खुट्टी बाकुटे दिल एक समय रात को १ वर्ष तक भक्षण करें। मुरापान के पाप दूर होने को कम्बल का कपड़ा पहिने और सिर के बाल एस्खे क्या सुरापात्र के चिन्ह युक्त होकर रहे ॥२२॥ सुरा मलमनाना पाप्मा व मतान्यो ।