पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१५

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मनुस्मृति भाषानुवाद तस्माद्बामणराजन्यौ नैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥१३॥ गाडीपेष्टीचमाध्वी च विज्ञया त्रिविधासुरा । यथैवैका तथासर्वा न पातव्या द्विजोत्तमः ||६४॥. सुरा अन्न का मल है और मल को पाप कहते हैं । इस कारण ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य मदिरा को न पीवे ||९शा गुड़ की और पिट्टी की तथा महुवे की, ये तीन प्रकार की सुरा जाननी चाहिये । जैसी एक वैसी ही सब द्विजोत्तमा को न पीनी चाहिये ॥९॥ क्योकि:- पक्षरक्षः पिशाचान मयं मांस सुरासयम् । तदनामणेन नातव्यं देवानामश्नता हविः || अमेध्ये चा पतेन्मचो वैदिकं बाप्युदाहरेत् । अकार्यमन्यकुर्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ॥६६॥ यह राक्षस पिशाचो के अन्न-मद्य, मांस सुरा, आसब देवतो का हवि खाने वाले ब्रामण को भक्षण करने न चाहिये ।।१५।। मद्य पीकर उन्मत्त हुवा ब्राह्मण अशुचि स्थान (मारी आदि) मे गिरेगा वा वेद की वकवाद करेगा वा और कोई निषिद्ध कार्य करेगा (इस कारण मय न पीवे) ॥९६|| यस्य कायगत बन्न मयेनाप्लाव्यते सकृत् । तस्प उपपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वं च स गच्छति ॥१७॥ एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य निष्कनिः । अतऊर्च प्रवक्ष्यामि सुवर्णस्तेयनिष्कृतिम् ||Ecll जिस ब्राह्मण के देह मे रहने वाला वेदशान एक बार भी मद्य