पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१६

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एकादशाऽध्याय ६१३ से डूब जाता है उसकी नाम णता नष्ट हो जाती है और वह शुदत्व को प्राप्त हो जाता है ॥१७॥ यह सुगपान की विचित्र निष्कृति कही। श्रव (तीसरे महापातक) सोने की चोरी का प्रायश्चित्त कहता हूँ॥१८॥ सुवर्णस्तेयकद्विषो राजानमभिगम्यतु । स्वकर्मख्यापयन्त्र पान् मां भवाननुश स्थिति ग्रहीत्या मुसलं राजा सकृद्धन्यात त स्वयम् । वधेन शुध्यति स्तेनो ब्राह्मणस्तपसेव तु ॥१०॥ सोने की चोरी करने वाला ब्राह्मण राना के पास जाकर अपने किये को प्रसिद्ध करक कहे कि मुझे पाप शिक्षा दें ॥९५॥ राजा (उसके अन्येपर लिय हुवे) सज को लेकर उस (चार) को एक वार मारे, मारने (पीटने) से मानण चार होता है और तप करने से भी (शुद्ध होता है) ॥१०० वपसापनन सुस्तु सुवर्णस्तेयज मलम् । चीरवासा द्विजोऽरण्ये चरेद्वमहणो व्रतम् ॥१०॥ एतैवतरपाहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः । गुरुस्त्रीगमनीयं तु तैरेमिरमानुदेव ॥१०२॥ चोरी के पाप का तप से दूर करने की इच्छा करने वाला दिल चीर को पहन कर बन में ब्रह्माहत्या का व्रत करे ॥१०॥ द्विज इन व्रतो से चोरी के पाप को दूर करे । और गुरु स्त्री के व्यभिचार सन्बन्धी पाप (चौथे महापातक) को इन (आगे कहे) मतों से दूर करे ना१०॥ गुरुतण्यामेमाप्यनस्तन्ते स्वप्यादयामये ।