पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१७

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मनुस्मृति भाषानुबाट सूमर्मी ज्वलन्ती स्वाश्लिष्पेन्मृत्युना स विशुध्यति।१०३ स्वयमा शिश्नपणावत्कृत्याधाय चाचली। ऋती दिशमाविष्ठेदानिपातादनिमगः ॥१०४॥ गुरु-मायो-गामी पाप को प्रसिद्ध करके लाहे की तपशय्या मे सोवे और लाहे की स्त्री लाल करके उसके साथ प्रालिङ्गान करे। उससे मृत्यु पाकर शुद्ध होता है ॥१०२॥ या आप ही लिङ्ग तथा वृषणों को काट कर प्रचलि में लेकर जब तक शरीर न गिर जावे सच सक टेढा चाल को न चलता हुवा सोधा नैन्य दिशा में गमन करे ॥१०॥ खट्वाङ्गी चीरवासाचा रसश्रु विजने वने । प्राजापत्यं परेव कृच्छ्रमब्दमेकंसमाहितः ॥१०५॥ चान्द्रायणं यात्रीन्मासानन्यस्येनियतेन्द्रियः । हविष्येण यवाग्वा का गुरुतल्पापनुसये ॥१०६॥ अथवा खट्वाङ्ग चिन्ह और फैश नख लोम श्मनु का धारण रने वाला यति होकर निर्जन बन में एक वर्ष पर्यन्त प्राजापत्य विकरे ||१०५अथवा जितेनद्रिय रह कर ३ मास तक हविष्य सथा यवाग के भोजन से गुरु मायो गमन सम्बन्धी पाप दूर करने के लिये चान्द्रायण नत करे ।।१०६॥ एतेन तरपोहेयुर्महापासकिनो मलम् । उपवासकिनस्त्वेवमेभिर्नानाविक्षेत्र है। ।।१०७॥ उपपातकसंयुको गोध्नो मासं यवान् पिबेद । कृतवापा घसेद्गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः ॥१०८