पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६१८

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रामदयाऽध्याय इन प्रतों को दूर करके महापातफी पाप को दूर और उपपातकी (आगे कहे हुवे) नाना प्रकार के प्रतो से पास दूर करें ॥१०४ उपपातरु से संयुक्त गौ का मारने वाला एक मास पर्यन्त यवो को पीवे. मुण्डन किया और और गौ के चर्म से बेष्टित होकर गोष्ठ में रहे ॥१०॥ चतुर्थकालमरनीयादक्षाग्लशं मितम् । गोमूत्रखाचरेत्स्नानं द्वौमासौ नियतेन्द्रियः ॥१०६।। दिवानुगच्छेद्गास्तास्तु तिष्ठन्नू, रजः पिवेत् । सुपिता नमस्कृत्य रात्रौ वीरासनं वसेत् ॥११०॥ और इन्द्रियों को वश में करता हुवा दो मास पर्यन्त गोमूत्र से स्लान किया करे और मारी लषण वर्जित हविष्य अन्न का चौथे काल में थोड़ा भोजन किया करे १२०९|| और दिन में उन गायों के पीछे चले और (खुर म अर उडी, धूल को खड़ा हुवा पीवे 'और सेवा तथा अन्न से सरकार करके राज को 'वीरासन हो कर पहरा देवे ॥११॥ तिष्ठन्तीष्वनुतिष्ठेतु ब्रजन्तीष्वप्यनुब्रजेन् । मासीनासु तयासीनो नियता वीतमत्सरः ॥१११॥ आतुरामभिशस्तां वा चौरच्याघ्रादिमिर्भयोः । पचित पडलग्ना वा सर्वापागविमोचयेत् ॥११२॥ और मत्सरता रहित नियम पूर्वक दृढ होकर बैठी हुई गौ के पीछे बैठ जाये और चलती हुई के पीछे चले और खड़ी हुईके साथ खड़ा रहे ॥१११॥ व्याधियुता और चार न्यागादि के भयों से