पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२०

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एकादशाऽध्याय पाकयज्ञविधानेन यजेत निश्चति निशि ॥११८|| अवकीर्यों को छोड़ अन्य उपपातक वाले दिन भी यही व्रत अथवा चान्द्रायण कर ॥११॥ अवकीर्ण काने गधे पर चढ़ कर रात को चौराहे में जा पाकया के विधान से निति देवता का यन करे ।।११८॥ हुस्त्राग्नौ विधिवद्धोमानन्ततश्च समेत्युचा । वातंन्द्रगुरुवदीनां जुहुयात्सर्पिपाहुतीः ॥११॥ कामतो रेतमः सेकं व्रतस्थस्य द्विजन्मनः। अनिक्रामं प्रतस्याहुधर्मज्ञा ब्रह्मवादिनः ॥१२०|| विधिवत् अग्नि में होम कर उसके अनन्तर ' संमा सिञ्चन्तु मरुत संपूपा से वृहम्पतिः । स मायमग्नि सिञ्चतु प्रजया च धनेन च । दीर्घमायुः कृणोतु मे ॥ अथर्व ७१३१३३३१ इस ऋचा के साथ मरुतं, इन्द्र, गृहस्पति और अग्नि की पत सं आहुति दे ॥११९।। (ब्रह्मचर्य) व्रत को धारण करने वाले द्विज के इच्छा से वीर्य स्खलन को वेदक जानने वाले धनं लोग बमवर्य का स्वस्ति हेना (अवकर्णित्व) कहते हैं ॥१२०॥ मारुतं पुरुहूतं च गुरु पायकमेव च । चनुरोबतिनोऽम्पति ब्राम तेजोऽवकीथिनः॥१२१॥ एतस्मिन्नेनासे प्राप्त वसित्वा गर्दभाजिनम् । सप्तागारांश्च स्वकर्म परिकीर्तयन् ।।१२२॥ व्रतवाले अवकोणी का नमसम्बन्धी तेन मारुत, इन्द्र, गुरु और अग्नि इन चारो में चज्ञा जाता है (इस कारण इन को आहुति देकर फिर प्राप्त करें)॥१२शा इस पावक के प्राप्त हुवे पर