पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२१

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६१८ मनुस्मृति भाषानुवाद गधेके चमड़े को लपेट कर अपने किये अकीर्णिरूपपाप को प्रसिद्ध करता हुवासात घरो से भिक्षा मांगे ॥१२२॥ तेम्या लब्धेन मैक्षण वर्चयन ककालिकम् । उपस्पृशस्त्रिषवणं स्वब्देन स विशुद्धयति ॥१२३।। जातिभ्रन्शकरं कर्म कृत्वान्यतममिच्छया । चरेत्सान्तपन कृच्छ्प्राजापत्यमनिच्छया ।।१२४|| उन घरों से प्राप्त हुवे मिक्षान से एक काल में भोजन से निर्वाह करता हुवा त्रिकाल स्नान करने वाला वह (पापी) एक वर्ष मे शुद्ध होता है ।।१२शा इच्छासे कोई जाति अंशकर कर्म करके (आगे कहा!) सान्तपन कुच्छ और चिना इच्छा से (करने पर) प्राजापत्य व्रत करे॥२४॥ संकरा पात्रकृत्य सु मासंशोधनमैन्दवस् । मलिनीकरणीयेषु तप्तः स्याधावकरूपहम् ॥१२॥ तुरीयो ब्रह्महत्यायाः शत्रियस्य वधे स्मतः । वैश्येऽष्टमांशोवृत्तस्थे शूद्र ज्ञेयस्तु पोडशः ॥१२६ (पूर्वोत) संकरी करण और अपात्रीकरण करने पर शु.. केलिये एक महीने तक चान्द्रायण व्रत करे और मलिनी करणों मे शुद्धिके लिये तीन दिन परम यवागू पीवे ॥१२५|| अच्छेयाधरण करने वाले क्षत्रियके वधमें ब्रह्महत्या का चौथाई प्रायचिश्त है। वैसे ही वैश्य के (घ) मे आठवां और शुद्र के (वध) में सोलहवां भाग प्रायश्चित्त होना चाहिये ॥१२६।। अकामतस्तु राजन्यं विनिपात्य द्विजोत्तमः । पभैकसहस्रा गा दद्यात्सुचरितवनः ॥२७॥