पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२२

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एकादशाऽध्याय ध्यन्दं चरेता नियतो जटी ब्रह्मणो व्रतम् । बसन्दरतरे ग्रामाद् वृतमूलनिकेतनः ॥१२८॥ आपण विना इच्छा से क्षत्रिय का मार कर अच्छे प्रकार व्रत करके एक बैल के सहित १ सहस्र गौत्रों का दान करे॥१२७|| अथवा जटा धारण करके हद होकर तीन वर्ष तक प्रमहत्या का प्रायश्चित्त ग्राम से बहुत दूर वृक्षके नीचे रहता हुवा करे ।।१८।। एतदेव चरेदन्दं प्रायश्चित्त द्विजोतमः । प्रमाप्य वैश्यं वृत्तस्यं दद्याच्चैकशतं गवाम्।।१२६॥ एतदेवयतंकृत्स्नं पएमासाद्रहा चरेत् । धृपभैकादशा वापि दयाद्विप्राय गाः सिताः ॥१३०॥ इसी व्रत का (विना इन्सास) अच्छे आचरण वाले वैश्य की हत्या में ब्राह्मण एक वर्ष तक करें और एक सौ गौओं का दान देदे ।।१२९। इसी सम्पूर्ण प्रत का (विना इच्छा से) शुद्र का मारने वाला छ. महीने तक करे अयवा एक बैल तथा दश श्वेत गौ ब्राह्मण को देवे ॥१३०॥ मारिनकली हवा चापं मण्डूकमेव च । श्वगाधेालककाकांश्च शूद्रहत्यात्रतंचरेत् ॥१३१॥ पयः पिवावरात्रंचा योजनवाबनात्रजेत् । 'उपस्पृशेत्स्वन्त्यां वा सूक्त बाब्दैवतं जपेत् ॥१३॥ मार्जार नेवला, चिड़िया, मेंढक, कुत्ता, गोधा, उल्क, काक इन को मार कर शूद्र हत्याका प्रायश्चित्त करो।१३१।। अथवा तीन दिन नदी में स्नान कर या तीन दिन जल देवता वाले (आपोहिष्टा इत्यादि ऋ० १०१९) मूक्त को जपे ।।१३।।