पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२५

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६२२ मनुस्मृति भाषानुवाद अस्थि वाले चद्रजन्तुओ के अधमें ब्राह्मण को कुछ देदेवे और अस्थिरहित नजन्तुओं के वध मे प्राणायाम से शुद्ध होता है ।१४१ फल देने वाले वृक्षो गुल्म वेल लता और पुपित वीरुषों के काटने में सौ (साविश्यादि) ऋचायो को जपे ॥१४२।। अन्नायजानां सच्चाना रसजानां च सर्वशः। फलपुष्पाइवानां च घृतप्राशोविशोधनम् ॥१४३॥ कृष्टजानामोषधीनां जावानं च स्वयं बने। यालम्मेऽनुगच्छेद्गा दिनमेकं पोवतः ॥१४४॥ अन्नादि और गुलादि रसो और फल पुष्पादि में उत्पन्न हुये जीवों के वध में “घृत का प्राशन पाप शोधन है ।।१४।। खेती से उत्पन्न हुवे और वन में स्वयं उत्पन्न हुने धान्यों के वृधा छेदन में दुग्ध का आहार करता हुवा एक दिन गौ के पीछे चले ॥१४॥ एते तपोछः स्यादेनोहिंसासमुद्भवम् । ज्ञानाज्ञानकतंकृत्स्नं शृणुतानाधमक्षणे १४५॥ अज्ञानाद्वारुणीं पीत्या संस्कारेणैव शुध्यति । भतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिकमिति स्थितिः ॥ १४६॥ इन प्रायश्चित्तो को करके हिंसा जनित पाप जो कि जाने का विना जाने कियाहो उसको दूर करना चाहिये। अब आगे अमक्ष्य भक्षण के प्रायश्चित्त सुनो ॥१४५|| अज्ञान से वारुणी मदिरा पीकर संस्कार से ही शुद्ध होता है और इच्छा पूर्वक पीने से प्राणान्तिक बध अनिर्देश्य है। यह मर्यादा है ।।१४क्षा अपः सुरामाजनस्थामयभाण्ड थिनास्तथा । .