पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२६

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एकादशोऽध्याय पंचरात्रं पिवेत्पीत्वा शंखपुष्पीभूतं पयः ॥१४७॥ स्पृष्ट्वा दना च मदिरा विधियत्प्रतिगृह्य च । शूद्रोच्छिष्टाश्च पीत्वापा कुशवारिपिवेल्यहम् ।१४८ मय की बोतल में रक्खा पानी तथा मध के करवे के पानी को पीने वाला शंखपुष्पी को पानी में श्रौटा कर पांच दिन पीवे ॥१४॥ मदिरा का स्पर्श करके वा देकर तथा प्रहण करके और शूध के उच्छिष्ट पानी को पीकर तीन दिन विधिपूर्वक कुशो का काढ़ा पीवे ॥१४॥ बामणस्त सुरापस्य गन्धमाघ्राय सोमपः। प्राणानप्सु बिरायम्य धृतं पाश्य विशुद्धपति ।१४६/ प्रज्ञानात्प्राश्यविणसूत्र मुरासंस्पृष्टमेव च । पुनः संस्कारमर्हन्ति प्रयावां द्विजातयः ॥१०॥ सोमयन किया हुवा ब्राह्मण मद्य पीने वालेका सूंघ कर पानी मे तीन वार प्राणायाम कर घृत का प्राशन करके शुद्ध होता है ॥१४॥ विना जाने मल मूत्र और सुरा से स्पर्श हुवे प्राशन करके चीनो द्विज वर्ण फिर से संस्कार के योग्य हैं ॥१५०॥ वपनं मेखलादण्डौ मैनचर्या व्रतानि च । निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनः संस्कार कर्मणि ।१५१ अभोज्यानां तु भुक्त्वाच स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च । जग्ध्वा मांसमभक्ष्यं च सप्तरात्र ययान्पिवेत् ॥१५२|| द्विजातियों के फिर से उपनयन होने में मुण्डन, मेखला का धारण दण्डधारण मिक्षा और प्रत (य सब) नहीं होते हैं ॥१५॥ 1