पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२७

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1 a मूत्र वा ६२४ मनुस्मृति भाषानुवाद जिनका भोजन करने के योग्य नहीं, उनका अन्न और स्त्री का तथा शूद का उच्छिष्ट और मांस और अन्य अभक्ष्य खालेवे तो सात दिन जौ के सत्त पीवे ॥१२॥ शुक्तानि च पायांश्च पीत्वामध्यान्यपिद्विजः। तावद्वत्यप्रयतो यावत्तव ब्रजल्पधः ॥१५॥ विवाहखरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयाः । प्राश्य सूत्रपुरीपाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत् ।१५४। सिरका आदि सड़ी ग्राह्य वस्तु भी और कादा पीकर तब तक द्विज अशुद्ध रहता है जब तक यह पचकर नीचे नहीं जाता ।१५३॥ श्राम का सूकर खर उष्ट्र शृगाल, वानर और काक के मल को द्विजाति भक्षण करले तो चान्द्रायण व्रत करे ।।१५४|| शुष्काणि भुक्त्वा मांसानि भौमानि कवकानि च । अशा चैव सूनास्थमेतदेव व्रतं घरेत् ॥१५॥ "कन्यादसूकरोष्ट्राणां कुक्कुटानां च भक्षणे । नरकाकखराणां च नमकृच्छ विशोधनम् ॥१५६।। सूखे मांस और पृथिवी में उत्पन्न हुवे कुकुरमुत्ता और वे जाने हिंसा स्थान के मांसको भक्षण करले तो भी यही (चान्द्रायणवत) करे ॥१५५।। "कच्चे मांस के खाने वाले और शकर उष्ट्र मुरगा नर और काक को भक्षण करले तो (आगे कहे हुये) वाकच्छ व्रत को करे। यह शोधन है" ॥१५६।। "मासिकानंतु योऽश्नीयादसमावत को द्विजः । स त्रीण्यहान्युपवसेनेकाई चोदक बसेत् ॥१५७|| ब्रह्मचारी तु योऽश्नीयान्मधुमांस कथञ्चन ।