एकापसाऽध्याय सकृत्वा प्राकृवं कृच्छ व्रतशेपं समापयेत् ।।१५८॥" जो द्विज ब्रह्मचारी मासिक श्राद्ध के अन्न को भोजन करे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन जल में निवास करे ॥१५७।। जो ब्रह्मचारी मद्य म.स को किसी प्रकार भक्षण करे वह प्राकृत कृच्छत्रत करके व शेप को समाप्त करें। (१५७ । १५८ श्लोक भी मृतकश्राद्ध और मांस प्रचारको ने मिलाये जान पड़ने हैं । मला जब श्राद्ध को वैदिक कर्म बताते हैं तो उसमें भोजन करने वाले को प्रायश्चित्त क्या बतलाते हैं। यह विरोष और मांस समी का अभक्ष्य है तो ब्रह्मचारी को मद्य मांस के सेवन में प्राकृत कच्छमात्र अल्प प्रायश्चित क्यो।) विडाल्काकाखांच्छष्टं जग्ध्वाश्वनकुलस्य च । केशकीटावपन्नं च पिवेबमासु पलाम् ॥१५६ अमोज्यमन नातव्यमात्मनः शुद्विमिच्छता । अज्ञानमुक्त तूचार्य शोध्यं वाप्याशु शोधन- १६० विल्ली, काक, मूसा, कुत्ता और नेवला के उच्छिष्ट और केश तथा कीट से युक्त अन्न को भोजन करके ब्रह्मसुवर्चला का काटा पीवे (दो पुस्तकों में "ब्राझी सुवर्चलाम् पाठ है) ॥१५९॥ अपने को पवित्र रहने की इच्छा करने वाला भोजन के अयोग्य अन्न का भोजन न करे और विना जाने खाये को वमन करके निकाले वा शोधन बन्यो से शीघ्र शोषन करे ।।१६०।। एपोऽनाघदनस्योक्तो बतानां विविधोविधिः । म्तेयदोपापहर्तयां बवानां श्रूयतां विधिः ।१६१॥ धान्याचघनचौर्याणि कृत्वाकामाद्विजोचमः । ७९