पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६२९

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६२६ मनुस्मृति मापानुवाद सजातीयगृहादेव कृच्छान्देन विशुध्यति ।१६२॥ अभक्ष्यमक्षणमें जो प्रायश्चित्तहैं उनके ये नानाप्रकारके विधान कहे ! अब चोरी के घोष दूर करने वाले बचो का विधान मुनिये ॥१६॥ ब्राह्मण अपने जाति वालो ही के घर से धान्य, अन्न और धन को चोरी इच्छा से करके एक वर्ष कृच्छत्रत करने से शुद्ध होता है ॥१६॥ मनुष्याणां तु हरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहस्य च । कूपवापीजलानां च शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम् ।।१६४ द्रध्याणामल्प राणां स्तेयं कृत्वाऽन्यवेश्मतः । चरेत्सान्तपनं कृच्छ० सन्निास्यात्मशुद्धये ॥१६॥ पुरुष स्त्री, क्षेत्र, गृह, कुवा वावड़ी और पानी के हरण करने में चान्द्रायण व्रत कहा है ॥१६।। दूसरे के थर से (खीरा, ककड़ी मूली इत्यादि) तुच्छ वस्तुओ की चोरी करके अपनी शुद्धि के लिये वह वस्तु जिसकी है उसको देकर (आगे कहा) सान्तपन कृच्छ- व्रत करे ॥१४॥ भच्यभोज्यापरणे यानशय्यासनस्य च । पुष्पमूनक नानां च पंचगव्यं विगोधनम् ॥१६॥ दणकाठद्रुमाणां च शुष्कानस्य गुडस्य च । चैलचमिषाणां च त्रिरात्रं स्यादभोजनम् ॥१६६।। (मादक खीर आदि) भक्ष्य भोज्य पदार्थों और सवारी शय्या श्रासन तथा पुष्पमूल और फल के चुराने में पचगव्य का पान करना (और वस्तु उसकी उसी को दे देना) शोधन है ॥१६५।। घास लकड़ी वृक्ष, शुष्कान, गुड़ कपडा, चमड़ा और मांस के