पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३०

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एकादशाऽध्याय १२७ चुराने में तीन रात्रि दिन उपवास करे॥१८६|| मणिमुक्ताप्रबालानां ताम्रस्य रजतस्य च । अगः कास्योपलानां च द्वादशाहं कणानता ।१६७/ कापसकीटजीर्णानां द्विशकिकशफस्य च । पविगन्धौषधीनां च रज्ज्वाश्चैव व्यहं पयः ।१६८ मणि, मोती, मूला, तावा, चांदी, लोहा, कांसी उपल पत्थर के चुराने में १२ दिन चावल की खुट्टी का भोजन करे ॥१६७|| कपास रेशम उन और चैल आदि दो खुर वाले, घोड़ा आदि एक खुर बाले पक्षी चन्दनादि गन्ध औषध तथा रस्सी के चुराने में तीन दिन पानी पीकर रहे ॥१८॥ एतैवतरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विज । भगम्यागमनीयं तु बतैरेभिरपानुदेव ।१६६ गुरुतल्पतं कुर्याद्रतः सिक्त्वा स्वयोनिषु । सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीपु कुमारीष्वन्त्यबासु च ॥१७० द्विज इन व्रता से.चोरी के पाप को दूर करे और जो गमन करने से अयोग्य हैं उसके साथ गमन करने के पाप को इन आगे कहे प्रतों से दूर करे ।।१६९॥ अपनी सगी बहन तथा मित्र की भार्या और पुत्र की स्त्री तथा कुमारी और चण्डाली के साथ गमन करने में गुरुस्त्रीगमन का प्रायश्चित्त करे ॥१०॥ पैतृऽवमेयीं भगिनी स्वस्त्रीयां मातुरेव च । मातुश्च धातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेद् १७१। एतान्तिवस्तु भार्यार्थे नोपच्छेत बुद्धिमान् ।