पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३८

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एकामशाध्याय वेदादितानां नित्यानां कर्मणां समनिकने । स्नानकर लोपं च प्रायश्चितममाजनम् ॥२३॥ हदारं माणसाचा वारं च गरीयसः । स्नात्वाऽनश्ननहः शेषमभिवाद्य प्रसादयेत् ।२०४॥ वंद में कहे हुए नित्यकर्म के लुटने और न्नातक ब्राह्मचारी के व्रत लोप में भोजन न करना प्रायश्चित्त कहा है ||२०|| बामण का "हुम् । ऐमा कह कर और विवादि में बडं को 'तू ग्मा कह स्नान करके भूखा रह. दिन भर हाथ जोड़ कर अभिवादन से प्रसन्न करे ॥२०॥ ताडयिचा तृणनापि कराटे चाबध्य बासमा । विवादे वा त्रिनिर्जित्य प्रशियत्य प्रसादयेत् ।२०५॥ "अथर्य त्वदशन सहस्रमभिहत्य च । जिघांसया ब्रामणम्य नरकं प्रतिपयते ।।२०६॥" तुप में भी (ब्राह्मण) को मार कर वा गल मे कपडा डाल कर तथा बकवाह मजीत ना हाय जाड उस प्रसन्न कर ॥२५॥ "ब्राह्मण को मारने की इच्छा पूर्वक दण्ड उठाने से मौ वर्ष तक नरक को प्रान होता है और यदि दण्ड में मारे नो १०० वर्ष तक नरक में रहता है।' "शोपिनं यावत. पांमून्संगृहाति महीतले । नावन्त्यमसहन्नमणि तकर्ता नरके वसेत् ॥२०७||' (मारे हुये प्रामण का) अविर भूमिके जितने रज. कणो को भिगोला है उतन हजार वर्ष विर निकालने वाला नरक में वास करता है।" (२०६ ॥२०७ भी प्रकरण विरुद्ध और अत्युक्त तथा ,