पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३९

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६३६ मनुस्मृति भाषानुवाद पुनरुक्त भी हैं । यहां प्रायश्चित मात्र का प्रकरण है सो २०८ ३ मे ब्राह्मण को दण्डा-उटाने, मारने और रुविर निकालने को प्रायश्चित्त कहे ही हैं। फिर पूर्व वर्णित नरकादि गति को यहां दुबारा वर्णन करनेकी आवश्यकता कुछ भी नहीं हैं) ।।२०७॥ अवर्य चरेत्कृच्छमतिकृच्छु निपातने । कृच्छतिकृच्छौ कुर्वीत चित्रस्योत्पाय शोणितम्।२०८। ब्राह्मण को मारने के लिये दण्डा उठाने से कृच्छ प्रायश्चित करे और दराठा मारने से (आगे कहा) असिक और रुधिर 'निकल पावे तो दोनो पाश्चित करे ।।२०८॥ अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानामपनुत्तो। शक्ति चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्र प्रकल्पये॥२०६।। पैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति । तान्वाऽभ्युपायान्वक्ष्यामि देवपिपिनसेवितान्।।२१० । जिन पापों का प्रायश्चित्त नहीं कहा है उन पापा के दूर करने को शक्ति और पाप को देख कर प्रायश्चित्त की कल्पना कर लेने २०९।। जिन उपायों से मनुष्य पापों को दूर करता है उन देव ऋषि, पितरो के किये हुवे आयो को तुमसे कहता हूँ ॥२१०॥ व्यहं प्रातस्त्यहं सायं व्यहमयादवाचितम् । ज्यहं परंच नाश्नीयात्माबापत्यं चरन्द्विजः॥२११ । गोमूत्र गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । एकरात्रोपवासश्च कृच्छ सान्तपनं स्मृतम् ।।२१२।। प्राजापत्य कृच्छु के आचरण करने वाला द्विज तीन दि.