पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४१

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मनुस्मृति भाषानुवाद + एकैकं हासयेत्पिण्डं कृष्णे शक्ले.च वर्धयेत् । उपस्पृशंस्त्रिषवणमेनचान्द्रायणं स्मृतम् ॥२१६।। स्वस्थ और स्वाधीन चित्त वालेका चारह दिन भोजन नकरना "पराक" नाम कुच्छ सब पाप दूर करता है ।।२१५॥ तीन काल स्नान करता हुआ कृष्णपक्ष मे एक एक पिण्ड-पास को घटाने और शुक्लपक्ष मे एक एक बढ़ावे। इस व्रत को “चान्द्रायण' कहा है ।।२१६॥ एतमेव विधि कस्नमाचरेधानध्यो । शुक्लपक्षादिानेयतश्चरश्चान्द्रायणं ब्राम् ॥२१७। अष्टावष्टौसमश्नी यात्पिण्डान्मध्यन्दिने स्थिते । नियतात्मा हविष्याशी यसियान्द्रायणं चरन् '२१८ । इसी पिण्ड = पास के घटाने बढ़ाने और निकालस्नानात्मक

    • यव मध्याल्य चान्द्रायण" को शुक्लपक्ष में प्रारम्भ करके

जितेन्द्रिय होकर फरे ॥२१७॥ जितेन्द्रिय हविष्य अन्न का भोजन करने वाला “यतिचान्द्रायण' व्रत का आचरण करता हुवा मध्यान्ह में आठ २ पिण्डग्रास भोजन करे ॥१८॥ चतुर: प्रावरश्नीयापिण्डान्विप्र समाहित । चतुरोतमिते सूर्ये शिशुचान्द्रायणस्मृतम् । २१६ । यथाकथञ्चित्पिण्डानां तिम्रोशीती:ममाहितः क्यबमध्याख्य-जिस चान्द्रायण में जैसे “यव" बीच में मोटा और किनारों पर पतला होता है, तद्वन् शुक्लपक्ष मे प्रारम्भ करने के कारण ग्रास वृद्धि करके फिर कृष्णपक्ष में पास घटने से विध के प्रसो का भोजन यवमध्य के समान मोटा हो जाता है।