पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४२

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कादशाऽध्याय मासेनाश्नमविण्यस्य चन्द्रस्यति लोकत मा२२० विप्र प्रातः काल चार ग्राम और चार सायदाल में भनण फरे। इसको शिशुचान्द्रायण" कहते है ।।२१या स्वस्थ हुशा जैसे धन वैसे हविष्य अन्न के १ महीने में तीन अमी/३४८० २४० दो पो चालीम प्राम भाजन करने गला चन्द्रलोक को प्राप्त हाता है ॥२०॥ एत द्रास्तथादित्या यावश्वाचनतम् । सर्वाशिल नोक्षाय मरुश्च महर्पिमिः ॥२२१॥ महान्याहुतिभिहन करायः स्वमान्यहम् । अरिमा मल्यमकाधमाजेवं च समाजाम् ।।२२२॥ इस 'चान्द्रायण' व्रत का रुत प्रानिय वमु मस्त इन संबा चाले विद्वानों ने महपिता के साथ सम्पूर्ण पार ना किया है (२२० । २२१ भो अनावश्यक और अयुक्त तथा निन्न शैली के जान पड़ते है) ।।२२२॥ (बती) पार निध महान्याहतियो से होम करे तथा हिमा साथ प्रकोप और मरलता का आचरण करे। विरहस्त्रिनिगायां च समासा जानाविगे । स्त्रीशूद्र तिवाश्चैव नाभिमापे कहिंचित् ॥२२३.। स्थानासनाम्यां विहरेदशतोऽ, रायीत वा । ब्रमवारी व्रती च स्याद्गुरुदेवद्विजार्चकः ।।२२४॥ दिन में ३ वार और रात्रि में३ बार सचैल गोता लगा कर स्नान करे तथा म्बी शूद्र और पतिनों के साथ कभी नवोला।२२।। स्थान और आसन पर उठा बैठा करे और यदि अशक्त होवे तो