पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४४

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एकादशाऽध्याय ६४१ → कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात् प्रमुच्यते । नैवं कुर्या पुनरिति निवृत्या पृयते तु स. ॥२३०॥ जैसे जैसे उसका मन दुष्कृत फर्म की निन्दा करता है वैसे मे वह शरीर उस अधर्म से छुटना है ।।२२९॥ पाप करने के पश्चान् मन्तापयुक्त होने में उस पाप से घचता है और फिर ऐसा नकरूं इसप्रकार कहकर निवृत्त होनेमे वह पवित्र होता है।।२३०॥ एनं संचिन्त्य मन सापकर्मफलोदयम् । मनोवाङ्मुनिभिनित्यं शुभं कर्म समाचरेत् ।२३१॥ 'अज्ञानादि वा ज्ञानात्कृत्वा कर्म विगार्हतम् । तम्माद्विमुक्तिमन्विच्छन् द्वितीयं न समाचरेत्॥२३२।। इस प्रकार मरने पर परलोक में कर के फनोदय का विचार कर मन,वाणी शरीर से नित्य शुभ कर्म करे ।।२३१।। समझे वा विना समझे अशुभ कर्म करके उमसे छूटने की इच्छा करने वाना फिर उस को दूसरी बार न करे ।।२३।। - यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनमः स्यावज्ज्ञाश्यम् । तस्मिंस्तावत्तपः कुर्यायावत टिकर भवेत् ॥२३॥ तपोमूलमिदं सर्व देवमानुषकं सुखम् । तोमध्यं बुधः प्रोक्तं तपोऽन्तं वेदर्शिभिः ॥२३॥ इस (पाप करने वाले ) के मन का जिस कर्म के करने में भारीपन हो उस में इतना प्रायश्चित करे जितने से इस को तुष्टि करने वाला हो जावे ॥२३शा इस सब देव मनुष्यो के सुख का