पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४५

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मनुस्मृति भाषानुवाद आदि मध्य और अन्त बंद के जानने वाले पण्डितों ने तप को ही कहा है ।२३४॥ ब्राह्मणस्य तपाज्ञानं तपः पत्रस्य रक्षणम् वैश्यस्तु .तपोवार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम् ॥१३५।। ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः ।। तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचराचरम् ।।२३६॥ ब्राह्मण का वेदशास्त्र जानना, क्षत्रिय का रक्षा करना.वैश्य का व्यापार करना और शून का सेवा करना तप है ॥२३५।। इन्द्रियो को जीतने वाले और कन्द मूल फल के भोजन करने वाले अपि संपूर्ण तीनो लोको के चर तथा अचर का तप ही से देखते हैं ।२३६। औषधान्यगदी विद्यादेवी च विविधा स्थितिः । तपसैच प्रसिध्वन्ति तपस्तेषां हि साधनम् ।।२३७|| यदुस्तरं यदुरापं यदुर्ग यञ्च दुष्करम् । सर्व तु तपसा साध्यं तपाहि दुरतिक्रमम् ॥२१८।। औपघ, आरोग्य, विद्या और नाना प्रकारकी देववों की स्थिति सब तप ही से प्राप्त होते हैं क्यो कि उनका साधन तप ही है ।२२७ जो दुस्तर है और दुःख से पाने योग्य है जहां दुःखसे जाया जाता है और जो दुख से किया जाता है वह सब तप से सपने योग्य है क्योंकि तर दुर्लघ्य है ।।२३८॥ महापातकिनश्चैव शेपाश्चाऽकार्यकारिणः । तपसव सतप्तेन मुच्यन्ते किन्चिपाततः ॥२३॥ कीटाश्चापिताश्च पशवश्च वयांसि च ।