पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४६

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एकापाध्याय स्थावराणि च भूतानि दिनं यान्ति तपोवलादा२४०१ महापातकी और शेष उपपातक वाले उक्त प्रकार से तप ही के अनुष्ठान करने से उस पार से छूटते हैं ।।२३९कीड़े, सांप पतङ्ग, पशु पक्षी और वृक्ष इत्यादि सब तप के प्रभाव से स्वर्गको प्राप्त होते हैं IReal यत्किञ्चिदेनः कुर्गन्ति मनोवाङ्मुर्तिभिर्जना: । उत्सव निर्दहन्त्याशु तपसैव तपोधनाः ॥२४॥ तपसव विशुद्धस्य ब्राह्मणस्य दिवौकसः ।। इज्याश्च प्रतिगृह्णन्ति कामान्संवर्धयन्ति च ॥२४॥ मनुष्य मन, वाणी, काय से जो कुछ पाप करते हैं उन सब को तप करने वाले सप से ही जलाते हैं ।।२४१|| तप करने से शुद्ध हुवे ब्राह्मण के यज्ञ में देवता आहुति को ग्रहण करने और उनके मनोवांच्छित फलों की वृद्धि करते हैं ॥२४२।। 'प्रजापतिरिदं शास्त्र तपसैबासृजत्ममुः। तथैव बेदानृपयस्तपसा प्रतिपेदिरे ॥२४॥" 'प्रजापति ने तप हो से इस शास्त्र को बनाया । उसी प्रकार पियों ने तप ही से वेदों को पाया" । (२४३ वा श्लोक तो स्पष्ट ही मनु से भिन्न पुरुष का वचन है। परन्तु इसी से यह भी प्रतीत होता है कि कदाचित् यह तप का सब ही व्याख्यान अन्यकृत हो । क्यो कि मनु की शैली यह नहीं देखी जावी कि वह एक घात का इतना बड़ा, बढ़ावें । जो हो, परन्तु नन्दन टीकाकार ने 'शEE है। वनुसार तो यह श्लोक मनु प्रोत ही है। .