पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४७

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मनुस्मृति भाषानुवाद भी लिखा है कि (इंट शास्त्रमिति च पठन्ति ) इससे जान पड़ता है कि नन्दन के समयमें भी "शास्त्रम् पाठ चलगया था) ॥२४॥ इत्येतत्तपसा देवा महाभाग्यं प्रचक्षते । सर्वस्यास्य प्रपश्यन्तस्तपसः पुण्यमुचमम् ॥२४॥ इस सम्पूर्ण तपके उत्तम पुण्य को इस प्रकार देखते हुवे देवता लोग यह तप का माहात्म्य कहते हैं। (२४४ से आगे दो पुस्तकों में यह श्लोक अधिक पाया जाता है और इस पर रामचन्द्र ने टीका भी की है:- [ब्रह्मचर्य जपोहोम काले शुक्षाल्पभोजनम् । अरागढ पलोमाश्च तप उक्त स्वयंभुवा ॥] ब्रह्मचर्य, जप, होम, समय पर शुद्ध थोड़ा भोजन, राग द्वेष लोमो का त्यागना, यह ब्रह्मा ने तप कहा है ) ॥२४४|| वेदाभ्यासोऽन्लाह शक्तया महायज्ञक्रिया क्षमा । नांशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि ॥२१॥ यथैवस्तेजसांवनिः प्राप्त निर्दहति क्षणाद् । तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्व दहति वेदवित् ।२४६॥ प्रतिदिन यथाशक्ति वेदका अध्ययन और पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान करना तथा अपराध को सहन करना ये महापातकों के भी (कुसंस्काररूप) पापों का शीघ्र नाश करते हैं ॥२४५|| जैसे अग्नि तेज से पाप के इन्धन को क्षण में सर्वथा जला देवा है, वैसे ही वेद का जानने वाला ज्ञानाग्नि से सम्पूर्ण (कुसंस्काररूपी) पापों को जला देता है ।४क्षा