पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४८

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.Pाशाऽध्याय "इत्येनदेनमामुक्त प्रायश्चित्त' यथाविधि। अतमय रहमाना प्रायश्चित्तं निबोधत ॥२४॥ सब्याइतिप्रणवका प्राणायामास्तु पोडश। अपि भ्र राहणे मासात्युनन्यहरह' कृचा ॥२४८॥" उमप्रकार से पापोंके प्रायश्चित्त यथाविवि कहे। अब अप्रकाश (बि) पापों का प्रायश्चित्त सुनो ॥२४७|| प्रणव और व्याहृति के साथ प्रति दिन किये हुवे मोला प्राणायाम महीने भर में भ्रूण- इत्या वाले का भी पवित्र कर मेने है। (४७ से २५१ तक ५ लाक भी प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं क्योंकि २४७ वे से नो कहा है कि वह प्रत्यक्ष पापों का प्रायश्चित कहा अम कियो का प्रायश्चित्त सुनी। प्रथम तो प्रायश्चित्त छिपाने पर होता नहीं । प्रत्युत छिपाना भी एक घोर पाप है और पूर्व की आय है कि पाप का स्वीकार करकं प्रकट करना भी एक प्रकार से प्रायश्चित्तान हैं। दूसरे यह प्रतिज्ञावास्य सब पुस्तकों में पुराने समय में न था क्योंकि कुल्लूक धीकाकार कहते हैं कि "यह श्लोक गोविन्दराम टीकाकार ने नहीं लिखा परन्तु मेधातिथि ने लिखा है तथा रापमान टीकाकार ने इसका पूर्वार्ध इस प्रकार लिखा है कि "इत्येयोऽभिहितः कृत्स्न प्रायरित्तस्य योविधिः यदि यह पाठ ठीक माने तो प्रायश्चितो की समाप्ति यहीं होजानी चाहिये तथा छिपे पाए का गुरुवर बड़ा मारी प्रायश्चित्त होना चाहिये। यहा २५१ में तो गुरुस्त्रीगमन के सरित्यागला प्रायश्चित के म्यान में कुछ ऋचाओ, मन्त्री और सूत्रों का पाउमात्र ही विधान किया है । इत्यादि हेतुओ से २५१ तक कल्पना प्रतीत होती है) ॥२४८ "कोसं जप्ताप इत्येतद्वासिष्ठ च प्रतीत्युचम् । माहित्रंशद्धवत्यश्च सुरापोऽपि विशुध्यति ॥२४॥ सकृजवास्यवामीयं शिवसङ्कल्पमेव च।