पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४९

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मनुस्मृति मापानुवाद अपनत्य सुवर्ण तु तणावति निर्मलः २५०॥ "उन्म शपि याना "अप नः शोशुचयम्" ८ ऋचा ऋग्वेदस्थ ६।९४ मून और वसिष्ठ ऋषि वाली प्रतिस्तोमेभिरूपसं वसिष्ठ- प्रत्यादि १८०१ १ ऋचा 'महित्रीणामोस्तु" इत्यादि १० ॥ १८५1 और "तुनिचन्द्र स्तमाम शुद्ध शुद्धन' इत्यादि ८ । १५ १७ शुद्धवती ऋचाओं का जप करके सुरापान करने वाला भी शुद्ध हो जाता है (दा पुस्तकों मे-माहि-माहेन्द्रम् पाठ है॥२४॥ साना चुराकर एफ घार प्रतिदिन अन्य वामीर्य-जिस में "प्रत्य- वाम" शब्द (मतो छ सूनसाम्नौ । अष्टा ५१२१५९) उस "प्रस्य वामन्य पलितन्य हेतुः इत्यादि १ १ १६५ ॥ १-५२ ऋचा के सूनको पढ़ कर था "शियसङ्कल्प" (यजुः ३४११-६ इस सूफ का पढ़ कर पण भर निर्मल हो जाता है ।।२५०|| "हयिष्यन्तीयमभ्यम्य नतमह इतीति च । जापल्या पौरुष मूक्त मुच्यते गुरुतल्पग. १२५||' एनसा स्थलसूक्ष्माणां चिकीर्षन्नपनादनम् ।। श्रात्यूचं जपंदन यात्कञ्चेदमितीत वा ॥२५२|| "विष्यान्नमन स्वविदि० २०१०1८८ इस १५ ऋचा के मूज को श्रार "न तमहान दुरित २१२३ । ६ प्रथया १०॥ ११और "दति या" इति मे मनः १०। ११५॥ १ इन का तथा सहमी इत्यादि १०।१७।१-१६ चानाक सूनका पढ़ कर गुगत्रीगमनका पाप हट जाता है ॥२५१।। चार बड़े पापों का प्रायश्चित करने की इच्छा वाला मनुष्य हल वा नमाभि." इत्यादि १।२४ ११४ शचा का अथवा यत्किञ्च घमण दन्ये जन ल्यादि १८५५ चाफा एक वर्ष तक जप ५२॥ । 1