पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६६७

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मनुस्मृति भाषानुवाद लूताहिसरठानां च तिरश्चां चाम्बुचारिणाम् । हिंस्राणां च पिशाचानां स्तेनो विप्रः सहस्रराः।५७) छणगुम्भलतानां च ऋव्यादा दैष्ट्रिणामपि । करकर्मकृतां चैव शतशो गुरुतल्पगः ।५८ चोरी करने वाला ब्राह्मण मकड़ी सर्प घिरगट जल में रहने वाले तथा हिंसा करने वाले पिशाचों के जन्म को हजारों वार प्राप्त होता है ।।५४ा गुरुपली से गमन करने वाला घास, गुच्छे लता कच्चे मांस का खाने वाले और कर कर्म करने वाले का जन्म सैंको वार पाता है ।।५८ हिंसा भवन्ति ऋव्यादाः कृमयोऽभयमक्षिणः । परस्परादिनः स्तेनाः प्रत्यान्त्यस्त्रीनिविणः ५६ संयोग पतितर्गचा परस्यैव च योषितम् । अपहत्य च चित्रस्न भवति ब्रह्मराक्षसः ॥६॥ प्राणियो का वध करनेके स्वभाव वाले- (मार्जारादि ) कच्चे मांसके खाने वाले होते हैं और अभक्ष्य भक्षण करनेवाले-कमि और चार-परस्पर एक दूसरे को खाने वाले होते हैं। तथा चण्डाल की स्त्री से गमन करने वाले भी मर कर इसी गति को प्राप्त होते हैं । (दो पुस्तकों के अतिरिक्त अन्यो में 'प्रेतान्य अशुद्ध पाठ है) ||१९|| पतितों के साथ रहने और पराई स्त्री से मैथुन करने तथा प्राझण का घन चुराने से ब्रह्मराक्षस होता है ।।६०11 मणिमुक्ताप्रबालानि हत्वा नोमेन मान। विविधानि च रत्नानि जायते हेमकर प ६१॥