पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७०

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द्वादशाभ्यार ६६७ वापारयुल्कामुखः प्र तो विनो धर्मात्स्वकाच्युतः। अमेध्यणपाशी च क्षत्रियः कटपूतन ७१॥ मैत्राक्षज्योतिका तो वैश्यो भवति पूयभुक् । चैलाशकच भवति शूद्रो धर्मात्स्वकाच्युतः ।७२। अपने कर्म से भ्रष्ट पाझप मर कर यमन का भोजन करने वाला ज्वालामुग्व, म्वकर्मभ्रष्ट क्षत्रिय पुरीप और शत्र का भोजन करने वाला कटपूतनाख्य योनिविशेष में उत्पन्न होता है ||७|| स्वकर्मभ्रष्ट वैश्य मरकर पीव का मनण करने वाला मैत्राक्षज्योति नाम उत्पन्न होता है और वैसे ही स्वकर्मभ्रष्ट शूद्र कपड़े की नू आदि खाने वाला चैलाशक नाम होता है ।सा यथा यथा निषेवन्ते विपयान्विषयात्मका: । तथा तया कुशजता तेषां तेषुपजायते ।७३। तेऽम्पासाकर्मयां तेषां पापानामरूप बुद्धयः । संप्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु तास्त्रिह योनिषु ।७४। विषयासक्त पुरुष जैसे २ विषयों को सेवन करते हैं वैसे २ उनमें उनकी कुशलता हो जाती है ।।७३|| वे निवुद्धि उन पाप कमों के अभ्यास से यहां उन २ योनियों में दुखो को प्राप्त होते वामिस्रादिषु चोग्रेषु नरकेयू विवर्तनम् । असिपत्रवनादीनि बन्धनच्छेदनानि 11७1 विविधाश्चैव संपीडा: काकोलूकैश्च भक्षणम् । करम्मत्रानुकातापान्तुम्मीपाकांश्च दारुणान् ७६।