पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७२

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द्वादशाऽध्याय पाहशेन तु मावेन यद्यत्कर्म निपेयते । तादृशेन शरीरण तत्तत्फलगुपारनते ११ एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फोदयः । नैश्रेयमकरं कर्म विषदं निरोपन २ जिम २ (माबिक, राजम. नामम) भाव से जो जो कर्म करता है वैसे शरीर में उप फर का भोग करता है। यह मन को का फलोदर तुम ने कहा । श्रम आगे नामण का कल्याण करने वाले इस कर्म को सुनोः-२॥ वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयम' । यहिंसा गुरुसेवा च नियमकरं परम् !८३ मर्वेषामपि चैपां शुभानामिह कर्मणाम् । किञ्चिच्छ यस्कातरं कोक्तं पुरुष प्रति ।८४१ बेड का अभ्याम तप, जान, इन्द्रियो का रोकना तथा हिंसा न करना और गुरु की सेवा यह परम कल्याण का देने वाला है ॥ इन सब कर्मों में कुछ अधिक श्रेय का देने वाला पुरुप के लिये कहा है (कि:-) icell सर्वेपामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम् । तद पायं सर्नविधानां प्राप्यते द्यन्तं वत. ८५/ पएणामेषां तु सर्वपां कर्मणां प्रत्य चेह न । श्रेयकातरं ज्ञेयं सर्व कर्म वैदिकम् ।। इन सब मे प्रात्मनान श्रेष्ठ कहा है। यह सम्पूर्ण विद्याश्री में प्रधान है क्योंकि उससे मोक्ष प्राप्त होता है ||८५|| इन छ: