पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७३

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६७० मनुस्मृति भापानुषाद कों में इस लोक तथा परलोक में सर्वदा अतिशय श्रेय को देने वाला वैदिक कर्म जानिये ॥८॥ वैदिक कर्मयोगे तु सर्वाएयेतान्यशेषतः । अन्तर्भवन्ति क्रमशस्वस्मितस्मिन्क्रियाविधौ |७|| सुखाम्धुदायिकं चैव नैश्रेयसिकमेव च । प्रवृत्त्रं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म मेदिकम् ॥ वैदिक (परमात्मा की उपासनादि) कर्मयोग में ये सब पुण्य उस र कर्मविधि मे सम्पूर्णता से क्रमपूर्वक आ जाते हैं 100 सुख का अभ्युदय करने वाला और मोक्ष का देने वाला एक प्रवृत्त दूसरा निवृत्त यह दो प्रकार का क्रम से वैदिक कर्म है ।।८।। इह चामुत्र वा काम्यं प्रचं कर्म कीर्त्यने निष्काम ज्ञानपूर्व तु निवृत्तमुपदिश्यते ।।८६ | इस लोक तथा परलोक मे भोगाई जो कामना से कर्म किया जाता है उसको मत कहो हैं और जो निकाम वथा ज्ञानपूर्वक किया जाता है उनको निात कहते हैं । (८९ ३ से आगे एक पुस्तक मे यह श्लोक अधिक है .-) अकामोपहतं नित्यं निवृत्रं च विधी पते । कामतस्तु कृतं कर्म प्रवृत्तमुपदिश्यते ॥ अकाम से उपहत कर्म निवृत्त और काम से किया कर्म प्रवृत्त कहाता है) ||| प्रवृचं कर्म संसेव्य देवानामेति साम्यताम् । निवृत्तं सेवमानस्तु भूतान्योति पञ्चो 10 ।