पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६७२ मनुस्मृति भाषानुवाद उत्पद्यन्ते च्यवन्तेच यान्यतोऽन्यानि कानिचिन् । तान्याकालिकतया निष्फलान्यनतानि च ॥१६॥ जो स्मृति वेदवाहा है और जो कुदृष्टि हैं वे सब निष्फल है क्योंकि अन्धकार में ले जाने वाली हैं (एक प्रकार से मानो मनु अपनी ही स्मृति को भी किसी अंश में वेदविरुद्ध होजाना सम्भव मानते हुवे यह वचन कहते हैं । क्योकि मनु के लक्ष्य में रखने को अन्यस्मृति तो उस समय थी ही नहीं )[९५॥ वेद से अन्यमूलक जोकुछ ग्रन्थ हैं वे उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। वे अक्किालके होने से निष्फल और असत्य है ( इसलिये जो वेद से प्रमाणित है, वही प्रमाण है ) ॥९॥ चातुर्वण्ये त्रयोलोकारवत्वारश्चाश्रमाः पृथक् । भूतभव्यभविष्यां च सर्व वेदात्प्रसिध्यति ।।६७॥ शब्द. स्पर्शश्व रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः । वेदादेव प्रसूयन्ते प्रतिगुणकर्मता ॥८॥ चार वर्ण, तीन लोक अलग २ चारआनम तथा भूत भविष्यत् वर्तमान सब वेद ही से प्रसिद्ध है ।।९७॥ शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध थे ५ भी वेद ही से उत्पन्न हैं । यद्यपि उत्पत्ति (सत्वादि) गुणों के कर्म से है ।। (अर्थात् यद्यपि सव पदार्थ अपने २ उपादान से उत्पन्न हैं, परन्तु उन सब का ज्ञान वेद से ही प्रारम्भ हुवा, इस लिये शब्दादि विषयों की उत्पत्ति वेद से ही कही गई)||८|| विभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् । तस्मादेतपरंमन्ये यजन्तोरस्य साधनम् 1880 सेनापत्य च राज्यं च दण्डनेतृत्त्वमेव च ।