पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७६

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द्वादशाऽध्याय ६७३ सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥१०॥ सनातन वेदशास्त्र सर्वदा संपूर्ण जीवों का धारण और पोषण करता है। इस प्राणी के लिये इस वेद के साधन को मैं (मनु) परम मानता हूँ ॥९९|| सेनापत्य और राज्य तथा दण्डनेतापन और सब लोगों पर आधिपत्य को वही पाने योग्य है जो वेदशास्त्र का जानने वाला है ॥१०॥ यथा जातवलो बहिर्दहस्यानिपि दुमान् । तथा दहति वेदज्ञः कर्मनं दोषमात्मनः ॥१०१॥ जैसे बलवान हुवा अग्नि गीले वृक्षो को भी जला देता है, वैसे ही वेट का जानने वाला अपने कर्मज दोष को जला देता है ।। (१०१से आगे ३ पुस्तकों में यह श्लोक मिलता है जोकि आवश्यक भी था.- [न वेदपलमाश्रित्य पापकर्मरुचिर्भवेत् । श्रज्ञानाच प्रमादाच दहते कर्म नेतरत् ] ॥ परन्तु वेद वल के भरोसे मनुष्यको (निर्भय हो) पाप कर्म में रुचिवाला नहीं बनना चाहिये। क्योंकि अज्ञान वा प्रमाद से जो कर्म बन जाते हैं, उन्हीं का पूर्व श्लोकानुसार ] हनन हो सकता है, अन्यों का नही) ॥१०॥ वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् । इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥१०२।। वेद शास्त्रार्थ का तत्व जानने वाला चाहे जिस आश्रम में रह कर इसी लोकमें रहता हुवा यह मोक्ष की प्राप्त होता है ।१०२ अजेम्यो प्रन्थिनः श्रेष्ठा ग्रन्थिम्योधारिणो वराः।