पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७७

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1 . “६७४ मनुस्मृति भाषानुवाद धारिम्याशा निनः श्रेष्ठा ज्ञानिभ्योव्यवसायिन।१०३। तपोविद्या च विनस्य निश्र यसकर परम् । ' तपसाकिन्विषं हन्ति विद्ययाऽमतमश्नते १०४। बिना पढ़ने वालो से प्रन्थ के पड़ने वाले अष्ट है उन से '(कण्ठत्थ) धारण करने वाले तथा उन से भी उन के अर्थ जानने और अर्थज्ञानियों से अनुरान करने वाले श्रेय हैं ॥१०३।। तप और विद्या ब्राह्मण को परम कल्याणप्रह तप से पाप दूर होता है और विद्या से मोक्ष प्राप्त होता है ।।१०४|| प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्र च विविधांगनुस् । प्रयं सुनिदिने कार्य धर्मशुद्धिमभीष्मता ।।१०५।।. आप 'धौपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केशानुसंधत्त स धर्म वेद नेतरः ॥१०६|| धर्मके तत्व को जानने की इच्छाकरने वालेको प्रत्यक्ष अनुमान और विधि शास्त्र, इन तीनो को भले प्रकार से जानना चाहिये ॥१०५|| ऋषियो के कहे हुवे उपदेशरूप धर्म को वेदशास्त्र के अविरोधी तर्क से जो खोज करता है वह धर्म को जानता है 'अन्य नहीं ॥१०॥ नैश्रेयसमिदं कर्म यथोदितमशेषतः ।। मानवम्यास्य शास्त्रस्य रहस्यमुपदिश्यते ॥१०७॥" अनाम्नातेपु धर्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत् । य शिष्टा बामणो न यु: धर्मः स्यादशङ्कितमा१०८ "यह नि यसका साधन कर्म नि शेष यथावत् कहा। अब इस मनु के शास्त्र का रहस्य बताया जाता है" (यह सष्ट ही अन्यकृत . 1 १