पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७८

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द्वादशाऽध्याय ६५५ है) है। तथा इस के विना भी प्रसङ्ग में कुछ भेद नहीं पड़ता ॥१०७ जहां पर सामान्य विधि हो और विशेष न हो वहां कैसा होना चाहिये, इस शङ्का पर कहते हैं कि जो शिष्ट ब्राह्मण केहूं वहां वहीं अशङ्कित धर्म है ॥१८॥ धर्मेणाधिगता ; यैस्तु नेदः सारिणः । ते शिष्टाग्राह्मणाज्ञेयाः अतिप्रत्यक्षहेतवः ॥१०६|| श्रु दशाबरा वा परिपचं धर्म परिकल्पयेत् । ध्यवरा वाशी वृत्तस्था तं धर्म न विचालन ॥११॥ ब्रह्मचर्यादियुक धर्म से जिन्होंने पडङ्गादि सहित बेड पढ़ा है वे श्रुति के प्रत्यक्ष करने वाले लोग शिष्ट ब्राण जासनेचाहि. ॥१०९।।, (१११ में कहे हुने) दश मी श्रेष्ठ विद्वान् जिस धर्म का । कहें वा( उनके अभाव में ) सदाचारी तीन भी कहें, उस धर्म का न लांबे ॥१०॥ (११० वे से आगे चार पुस्तकों मे १ यह शोक प्रक्षित है - [पुराणं मानवोधर्मः साझोपाङ्गचिकित्सकः । झासिद्धानि चत्वार न हन्तव्यानि हेतुभिः ।।] १ पुराण, २ मनुप्रोक धन ३ साझोपाङ्ग चिकित्सा शास्त्र ४ साधु आदि की आना से सिद्ध, इन को हेतुओ से खण्डित न करे) ॥११॥ त्रैवियो हेतुकास्तकी नरुक्तोधर्मपाठकः। अयश्चाश्रमिणः पूर्व परिपत्स्याइशारा ॥११॥ ". ऋग्वेदविद्यजुर्विध सामवेदविदेव च ।