पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६७९

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६७६ मनुस्मृति भाषानुवाद ध्यवरा परिपज्ज्ञेया धर्मसंशगनिर्णये ॥११२|| १-३ तीन वेदों के जानने वाले और ४ (अतिस्मृति के अविरुद्ध )न्यायशास्त्र का जानने वाला तथा ५ (मीमांसक) तर्क का मानने वाला और ६ निरुक्त जानने वाला तथा धर्मशास्त्र का जानने वाला और ८-१० पूर्व के तीन (अमचारी गृही धनी ) आश्रम वाले,यह दशावरा सभा (परिपत) है।१११। ऋक् यजुःसाम, इन तीन वेदों को जानने वालों की धर्मसंशय निर्णयके लिये ज्यवरा प्रभा जाननी चाहिये ॥१२॥ एकोऽपि वेदविद्धर्म में व्यवस्वेद् द्विजोत्तमः । सविज्ञेयः परोधी नाज्ञानामुदितोऽयुतैः ॥११३ ॥ अवतानामऽमन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम् । सहस्रशः समेवानां परिपत्वं न विद्यते ॥११॥ वेदका जानने वाला ब्राह्मण एक भी जिस धर्मको कहे उसको श्रेष्ठ धर्म जाना चाहिये और अझो का दश हजार का भी कहा कुछ नहीं ॥११३।। व्रत और बेदमन्त्रो से रहित तथा केवल जातिमात्रसे जीते हुवे सहस्रो भी इकट्ठे हुयोको परिषत्व (धर्मनिर्णय, का सभात्व) नहीं है ॥११॥ यं वदन्ति तमो भूता मूर्खाधर्ममतद्विदः। तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वतन सुगच्छति ॥११॥ एतद्वोमिहितं सर्व नियसकरं परम् । अस्मादप्रच्युतो विप्र प्राप्नोति परमां गतिम् ॥११६।