पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६८०

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द्वाराऽध्याय Ewy नमोगुणप्रधान मूर्ख धर्मप्रमाणवेदार्थ को न जानने वाले लोग जिमको (प्रायश्चिचादि) धर्म बताते हैं, उसका पाप सौगुणा होकर उन बताने वालों को लगता है ॥१५॥ यह नियस का सावन धर्मादि मब तुममे कहा । इमक अनुष्ठान से न गिरने वाले नामयादि परमगति को प्राप्त होते हैं ॥११॥ "एवं स भगवान्देवो लोकानां हितकाम्यया । - धर्मस्य परम गुण ममे सर्बमुक्तवान् ॥११७॥" सर्वमात्मनि संपश्येस्सचा सच्च समाहितः । सर्व झात्मनि संपश्यनाऽधर्म कुरुते मनः ॥११८] "इस प्रकार उस भगवान देव (मनु) ने लोगों के हितकी इच्छा से धर्म का परमगुह्य यह सब मुझको प्रदेश किया ॥ (भृगुवा सम्पादक, कोई कहता है) ॥११॥ सन और असन् सबको ममा- हितचित होकर आत्मा में देखे क्योंकि सब को आत्मा में देखने वाला (परमात्मा के भय से) अधर्म में मन नहीं लगाता ॥११८॥ आत्मैव देवता: सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम् । मात्माहि जनयत्वेषां कर्मयोग शरीरिणाम ॥११॥ ख निवेशयेत्स्वेषु चेष्टनस्पर्शनेऽनिलम् । पक्तिदृष्टयाः परतेज स्नेहे-पागां च मूर्तिषु ॥१२०॥ श्रात्मा ही सम्पूर्ण देवता है क्योंकि सब कुछ आमा मे हो स्थित है और इन शरीरियों (जीवात्माओं) के कर्मयोग का आत्मा ही उत्पन्न करता है ।।११९॥ आकाशों में आकाश को निविष्ट करे और चेष्टा तथा स्पर्श में वायु का और जठराग्नि तया दृष्टि से परसतेज का और शरीर के स्नेह में जल को, तथा मूर्तियों