पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६८१

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. ६७८ मनुम्मृति मापानुवाद (शरीरों) में पृथिवी को सन्निविष्ट करे (इस काम से ध्यानावस्थित होवे) ॥१२०॥ मनसीन्दु' दिशः श्रोत्रे क्रान्ते विष्णु बजे हरम् । वाच्यग्नि मित्रमुत्सर्गे प्रजने च प्रजापतिम् ॥१२१॥ प्रशासितारं सर्वेषामणीयांउमणोरपि । रुक्मानं स्वप्नधीगम्यं विधाचे पुरुष परम्।।१२२॥ मन में चन्द्रको, कान में दिशाओका, गति में विष्ण को. वन में शिवको, वाणीमें अग्नि को, गुदामें मित्रको लिङ्ग में प्रजापति को, निवेशित करे। इन २ इन्द्रियोंक ये २ अधिष्ठातृदेवता-दिव्यगुण है। ध्यान करने वाला प्रथम उस र इन्द्रिय के साथ उस २ के अधिष्ठान देवताकी मलेप्रकार स्थिति सम्मानकर (अर्शन इनियो मे अनुचित विषय प्रहण को वजे) ॥१२१शा सव के नियन्ता और श्रण से अण तथा सुवर्ण की सी आभा वाले और स्वप्न को सी (एकाग्र बुद्धि से गन्य का परम पुरुप जानना चाहिये ॥१२२|| एतमेके वदन्त्यग्नि मनुमन्ये प्रजापतिम् । इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्मशाश्वतम् ॥१२३।। एष सर्वाणि भूतानि पञ्चमिव्याप्य मूर्चिभिः । जन्मवृद्धितर्यनित्यं संसारयति चक्रवत् ।। २४१ उसका कोई अग्नि कहते हैं और कोई मनु कोई इन्, कोई प्राए और कोई शाश्वतब्रह्म कहते हैं।। १२३॥ यह आत्मा सब जीवों को पञ्चमहाभूतों रूप मूर्तियो से व्याप्त करा कर नित्य चक्र के समान जन्म वृद्धि क्षयों से घुमाता है ॥१२४॥ Italy