पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/७०

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प्रथमाऽध्याय को ले चलने वाला पवित्र बलवान वायु उत्पन्न होता है वह स्पर्श गुण वाला माना है ।१७६॥ वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णु तमोनुदम् । ज्योतिरुत्पद्यते भास्वत्तद्रूपगुणमुच्यते ॥७७॥ ज्योतिषश्च विकुर्वाणाद पोरसगुणाः स्मृताः। अया गन्धगुणा भूमिरित्येपा सृष्टिरादितः ।।७८॥ वायु के विकार से तम का नाश करने वाला प्रकाशित चम- कीला अग्नि उत्पन्न होता है उसका गुण रूप है ||७|| अग्नि के विकार से जल उत्पन्न होता है जिसका गुण रस है और जल से पृथिवी, निसका गुण गन्ध है । प्रथमसे सृष्टिका यह क्रम है Ihvet . यस्याग्द्वादशसाहस्रमुदितं दैविकं युगम् । तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते ॥७६|| मन्वन्तराएयस ख्यानि सर्गः सहार एव च । क्रीडभिनेतस्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥८॥ पूर्व जो बारह सहन वर्ष का दैव युग कहाता था. ऐसे एकहचर युग का एक मन्वन्तर होता है |७९।। मन्वन्तर असंख्य हैं। सृष्टि और संहार -प्रलय भी असंख्य हैं । इन को बार वार प्रजापति क्रोडावत् (विना श्रम) ही किया करता है ।।८०॥ "चतुष्पात्सकलो धर्मः सत्य चैव कृते युगे। नाधर्मेणागमः कश्चिन् मनुष्यान् प्रतिषता ॥८॥ इतरेप्वागमाद्धर्मः पादशस्त्ववरोपितः। चौरिकानृतमायामिर्धर्मश्चापति पादशः ॥८२॥"