पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/७२

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प्रथमाध्यात्र ६९ धर्म पूरा होता है अधर्म की मनुष्यों में प्रवृत्ति नहीं होती। यह चात प्रथम तो "काल" क्या वन्तु है इस बात पर विचार करने से ज्ञात हो सकती है:- अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं विप्रमिति काललिङ्गानि ॥ वैशेषिकदर्शन अ० २०२ पहले पीछे एक साथ और शीघ्र, ये काल के चिन्ह है। इसमे धर्म वा अधर्म में प्रवृत्त करना काल का काम नहीं। तथा ग्रह इतिहास प्रमाण के भी विरुद्ध है कि सत्ययुग में अब न हुआ हो। इतिहासों के विचार से ज्ञात होता है कि सत्र युगों में पानी पुण्यात्मा देव, असुर इत्यादि होते रहे हैं। यह लेख मनु के ही पूर्व लेख के प्रतिकूल है। मनु में पूर्व श्लोक में लिखा है कि प्रज्ञा प्रथम धर्माधर्म सुख दुख से युक्त हुई । तौ सष्टि के प्रारम्म में पहले सत्ययुग होना है उनमे अधर्म और दुख उत्पन्न 'हुवे श्लोक में हिंसक अहिंसक मूद्ध क्रूर घमाऽधर्म मत्या सत्य थे तो सत्ययुगमे क्यों थे । इत्यादि प्रकारसे और उम कारणसे मी कि इन युगों की व्याख्या श्लोक ६९।७० मे हो चुकी । मनुजी युग में धर्माऽधर्म का प्रभाव बताते तो उसी के आगे लिखते । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त नान पड़ने हैं । ८२३ मे त्रेता में चोरी द्वापर में असत्य और कलि में छल होना बताना भी पूर्वोक्त कारणों से माननीय नहीं । ८३ में सत्ययुग में सबका नीरोग रहना बवाना भी उक्त कारणों से अशाह्य है । ८४८५ और ८६ में जो काल के प्रभाव लिखे है वे भी उक्त प्रकार से शास्त्रो. इतिहासों और मनुवचनों से भी विरुद्ध हैं। श्लोक ८० का ८७ के साथ सम्बन्ध भी ऐसा ठीक मिलता है जिससे वीच के ६ श्लोक अनावश्यक जान पड़ते है)।