पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/७३

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७० मनुस्मृति भाषानुवाद सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थ स महायुतिः । मुखबाहरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ॥८॥ अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैत्र ब्रामणानामकल्पयत् ।।८।। उम महा तेजस्वी ने इस सव सृष्टि की रचनार्थ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य गढ़ी के कमों का पृथक् २ बताया || ब्राह्मणों के पट कर्म-पढना, पढाना यक्ष करना कराना, दान देना और लेना धताये है ।। ८८ ॥ प्रजानां रक्षणं दानभिज्याऽध्ययनमेव च । विषयवप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः || पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च । पणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृपिमेन च 18oll प्रजा की रक्षा, दान देना यन करना, पढ़ना और विषयोंमें न फंसना सक्षेप से क्षत्रिय के कर्म हैं ।।८९|| पशुवों का पोपण, दान देना, यज्ञ करना, पढना, व्यापार करना, व्याज लेना और खेती, ये वैश्य के हैं ॥१०॥ एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् । एतेषामेव वर्णानां शुश्रुपामनसूयया ॥१॥ ऊर्च नामध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः । तस्मान्मेध्यतमं स्वस्त मुखमुक्तं स्वयंभुवा 18२॥ प्रमु ने शूद्रो का एक ही कर्म बताया कि इन (तीनों) वर्षों की निन्दा रहित (जिसमे कोई निन्दा नही ) सेवा करनी ।। ९१ ।। f ।