पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/७४

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प्रथमाऽध्याय, पुरुष नामि के उपर पवित्रतर कहा है। इससे परमात्मा ने उसका मुख उससे भी पवित्र कहा है।९२॥ उत्तमाङ्गोडवाज्यैष्ठयाद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् । सनस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः ॥६३|| वहिस्वयंभूः स्वादास्यात्तपस्तप्त्वाऽदितोऽसृजत् । हव्यकव्याभिवाशाय सर्गस्यास्य च गुप्षये ॥४॥ उत्तमाजोद्व (मुखतुल्य होन) और ज्येष्ठता और वेदके धारण कराने से ब्राह्मण संपूर्ण जगतका धर्मसे प्रभु है ।। ९३ ।। क्योंकि ब्राह्मण को परमात्माने देवता और पितरो के हव्य कन्य पहुंचाने और सम्पूर्ण जगन की रक्षा के लिये (मानमय) तप करके (स्वस्वामिमाय से) अपने मुख से उत्पन्न किया है ।। (देववा-बायु अदि और पितर चन्द्रकिरणादि को हव्यकव्य नामक पदार्थ अग्नि में हमे जाते हैं उसे यज्ञ कहते हैं । यज्ञ कराना ब्राह्मण का कर्म बताया जा चुका है। इसलिये हव्यकव्य पहुंचाने का काम ब्राह्मणो का हुवा । "परमात्मा ने अपने मुखसे रचा" इसका तात्पर्य श्लोक ८८ के अनुसार यही है कि पढ़ना मुखसे पढ़ाना मुग्यसे यज्ञ करने करानेमे वेदपाठ मुखसेदान और श्रादानका वाक्य उच्चारण करना, प्रायः ये सब काम मुख से ब्राह्मण करता है। परमात्मानं वेदद्वारा जो धर्मोपदेश किया है सो भी ब्राह्मण ऋपियों के मुख्य द्वारा किया है। यथार्थ में परमात्मा तौ सर्वे जियगुणाम, मवेन्द्रिय विवर्जितम् । श्वेता० इत्यादि प्रमाणो से मुखादिरहित ही है) ॥४॥ यस्यास्येन सदाऽश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकमः । कव्यानि चैव पितरः कि भृतमधिक ततः ॥५॥