पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/७६

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प्रथमाऽध्याय ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकाशस्य गुप्तये ||६|| सर्व स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किञ्चिज्जगतीगतम् । श्रेष्ठवेनाभिजनेनेदं सर्व वै बामणोऽर्हति ॥१०॥ आबाण का अपन होना ही पृथ्वी में श्रेष्ठ होता है, क्योंकि सम्पूर्ण जीवों के धर्मरूपी खजाने की रक्षार्थ वह प्रभु है ( अर्थात् धर्म का उपदेश ब्राह्मण द्वारा ही होता है ) ॥१९॥ जो कुछ जगत् के पदार्थ हैं वे सब ब्राह्मण के हैं। ब्रह्मोत्पचिरूप श्रेष्ठता के कारण ब्राह्मण सम्पूर्ण का ग्रहण करने योग्य है। (यह ब्राह्मण की प्रशंसा है कि सम्पूर्ण को ब्राह्मण अपने सा जाने किन्तु प्रामण यह नहीं समझे कि पराये धन को चोरी आदि से ग्रहण करन। क्यों कि ब्राह्मणों को भी चोरी का दण्ड आगे लिखा है ) ||१०|| स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्व वस्ते स्वं ददाति च । आनृशंस्या ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतर जनाः ॥१०॥ "तस्य कर्मविवेकार्थ शेषाणामनुपूर्वशः । स्वायंभुवो मनुर्थीमानिदं शास्त्रमकल्पयत् ॥१०२॥" (जो कि) ब्राह्मण (दूसरे का भी दिया अन्न) भोजन करे या (सरे का दिया वस्त्र) पहिने या (दूसरे का दिया लेकर और को) देवे, सा सव ब्राह्मण का अपना ही है। अन्य लोग जो भोजनादि करते हैं वे केवल ब्राह्मण की कृपा से । (वात्पर्य यह है कि ब्राह्मण के ६ कमों में व्यापारादि करना धन कमाना नहीं कहा, केवल गान और यज्ञ कगने आदि कामों में दक्षिणा लेना

ही उस की जीविका है। इस पर कोई कदाचित यह समझें कि

ब्राह्मण सेंत मेंव खावा (मुफ्तखोरे) रहे सो नहीं। किन्तु ब्राह्मण १०